चाहिए एक अदद गोबरपथनी सह झोंटलहिया-पोटलहिया लड़की, रंग-रुप…नाक-नक्शा चाहे जैसा हो…दान-दहेज का कौनो झंझट नहीं! शर्त बस इतनी है बबुनी को गृहकार्य में दक्ष होना चाहिए और साथ ही साथ स्वभाव भी ऐसा होना चाहिए कि जब अपने महान गजलकार-फनकार महोदय श्रृंगार की चाशनी में अपनी अधपकी रचनाओं की जलेबी छान रहे हों, उस समय चाहे भले ही शुद्ध देसी घी से भरी गगरी ढिमिलिया खा रही हो, उस समय थरिया नून-रोटी लेकर उनके कपार पर सवार ना हो!
ठिक है!!!
अब आप सोच रहे होंगे कि कौन है उ विचित्र प्राणी जो आज के जमाने में ऐसी लड़की के फेर में आज तक सत्र सोमवार का व्रत कर रहा है!!
तो साहेबान…थाम लीजिए अपना पाव भर का करेजा!!
वो हैं हमारे १ मित्र
हां जी…यही हैं वो विलक्षण वर जिनके लिए खूबसूरत गजल लिखना और गाना उतना ही आसान है जितना हमारे लिए जाड़े की दुपहरी में खटिया पर बैठकर टमाटर की चटनी और भात खाना!!
ना…ना…अइसा भूल के भी मत सोचिएगा कि वो खूबसूरत या स्टाइलिश नहीं हैं या फिर स्वभाव से सोझबक गाय हैं!!
भइये…दिखने में तो वो बेमिसाल हैं, नख से लेकर शिख तक, कद भी यही कोई छ: फुट से उपर ही है जो कि हाल-फिलहाल बढ़ भी सकता है…कारण कि रोज नियमपूर्वक चार चम्मच कॉम्पलान का दूध के साथ सेवन तो कर ही रहे हैं साथ ही साथ इस अगहन की भोरहरिया में सीवान जाकर बांस से लटककर बिलाई भी छान रहे हैं!!
अभी पिछले दिनों अपने एक सहयोगी मास्टर साहेब के साथ शहर के मशहूर रेस्टोरेंट में जाना हुआ!! अब उहां का हाल तो भइये पूछो मत…ऐसी-ऐसी तितलियां मंडरा रही थी…नाज-नखरे दिखा रही थीं कि एकबारगी तो मन में ख्याल आया कि अगर कभी खोदा ना खांसता इनका बियाह अपने विशाल भाई के साथ हो गया तो पक्का तृतीय बिस्वजुद्ध की शुरुआत #करईल से ही हो जायेगी!!
अरे इनको तो अइसा बकलोल दूल्हा चाहिए जो डिल्ली कमाने जाये और घर पर चार दफे फोन कर दे कि…’माई रे माई..इहां बनावे-खाये में बड़ा पिरोबालम होत बा!!’ तो जब तक वे बूढ़ा-बूढ़ी कुछ सोचें, तब तक मेहरिया बैग बांकर मगध इक्सप्रेस पकड़ ले!!
अब सब लड़का इनकी तरह बउचट तो है नहीं कि बियाह करके मेहरिया से माई की सेवा-टहल कराये!! आखिर नवका जमाना है जिसमें लोग माई को मम्मी कहके डॉक्टरेट की मानद उपाधि पा जाते हैं!!
बहुत तंग कर दिया है इ लइका…कहता है…’भइया तूहूं गजल-कविता लिखा…जब भी लिखेला…खड़े पानी में आग लगा देला!!’ अब हम कइसे समझाईं छोटका भाई के कि हमारा लिखा तभी जमता है जब ये गा देते हैं!!
वसे भी कौन पूछता हमें!!
लोग तवज्जो भी तो तभी देतते हैं जब नाम का सिक्का चल चुका होता है! अगर कृपा शंकर-विशाल की जगह साहिर और गुलाम अली होते तो बात कुछ और होती!!
वैसे हम भी एकदम्मै जिदिया गये हैं कि इस साल इनका बियाह करा ही दें!! अब आपलोग इ मत पूछियेगा कि कनिया मिलेगी विशाल को तो तुम काहें इतना मगन हो!!
तो भइये सुन लो…हम ठहरे पंडीजी…चार रुपये दक्षिणा और चार ठो मिठाई मिल जाये…बस इसी में संतुष्ट हो जाते हैं!! कौनों लाज-शरम नहीं हमें मांगकर खाने में…हजारों सालों से इसी तरह जी रहे हैं और आगे भी जी लेंगे!! चिंता-फिकिर और शरम करें वे नरपिशाच जिनके मुंह खून लग चुका है…कैसे जियेंगे आगे, ये वो ही जाने!!
और हां…एक और लालसा है इनके लिए!! कवि सम्मेलनों और मुशायरों के मंच पर देखना चाहता हूं इनको…कोशिश भी कर रहा हूं!! पर क्या कहूं मालिकानों को…भाग्यविधाताओं को!!
इनकी चूतियागिरी ने पूरा माहौल दूषित कर दिया है!! आज जिसके घर में भले ही आठ दिनों का राशन हो ना हो पर अपना अस्सी प्रतिशत समय रोटी कमाने की बजाय राजनीति की चूतियापंथी बतियाने में बिताता है!!
जैसे इ हमसे जबरदस्ती गीत लिखवा देते हैं वैसे ही हम भी इन्हें मुशायरे के लिए प्रेरित करते हैं!!
लेकिन भई कुछ भी कहो…लइका है बड़ा जिद्दी…कहता है…
‘बै भइया…छोड़िये ना इ मुशायरे-फुसायरे का चक्कर!! पेड़-ठूंठ, घास-पात, नदी-नाला, गड़ही-गदहा, कुकुर-बिलार सबको साहित्य सुना दो…मन से सुनेगा पर इ जो आदमी नाम का जीव है ना.. उसको मत सुनाओ!! निन्यानबे के फेर में पड़ने वाला अनहद का नाद नहीं सुनता!!’
सोच में पड़ जाता हूं कुछ देर के लिए मैं!!
सही तो कह रहा है भाई!!
किसे पड़ी है हम जैसे किस्सागो के चक्कर में पड़ने का….
किसके पास समय है गीत-गजल सुनने का!!
पेट की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि उसकी हवस बुझाने से ही फुरसत नहीं मिलती….तिल-तिल करके मरते हुए मन को बचाने की फिक्र किसे है!!
हम अपनी संस्कृति खो रहे हैं…
प्रकृति खो रहे हैं…
एक अर्थ के अंधानुकरण की विकृति बची है, जिसे कलेजे से चिपकाये घूम रहे हैं!!
कथाकार – कृपा शंकर मिश्र ‘खलनायक’
चित्र साभार- गूगल