लालकेसर तिवारी उपर से जैसा दिखते थे, अंदर से वैसे तो बिल्कुल भी नहीं थे, कोई उन्हें देखकर अनुमान नहीं लगा सकता था कि हाड़-मांस के इस पुतले के अंदर कितने झंझावात पल रहे हैं! उनके भाग्य में भी वही बदा था जैसाकि एक आम पुरबिये की नियति में लिखा होता है, दो जून की रोटी कमाने में जांगर ठेठाते हुए मर-खप जाना!
कहानी शुरु होती है साठ के दशक से जब भयंकर सूखा पड़ता आ रहा था, तब इन जैसे साधारण लोगों की कौन कहे, बड़े-बड़े जमींदार नामधारियों को पेट छुपाने की नौबत आन पड़ी थी! माँ-बाप की तीन संतानों में सबसे बड़े थे, इनके बाद एक बहन थी जिसका विवाह बाबूजी ने किसी तरह सुख-दुख में निपटा दिया था, सबसे छोटा भाई अभी गांव के प्राथमिक विद्यालय में जाना शुरु ही किया था! हालांकि ये अभी बारहवीं में ही पढ़ रहे थे लेकिन गरीबी ने दुनियादारी में मास्टर डिग्री दिला दी थी।
जब दरिद्रता ने अपना रौद्र रुप दिखाना शुरु किया तो लालकेसर का मन गांव से उचटने लगा, हालांकि अभी पिछले साल ही इनका बियाह हुआ था और नवकी कनिया पेट से भी थी। ऐसे समय जब नयी उमर के लड़के मेहरारु का मुंह निहारते हैं, इनकी नजरें कलकत्ता की ओर देखने लगी। वैसे भी गांव-घर में रखा क्या था, खेत के नाम पर उतना ही कि चिरई का भी पेट ना भरे, ले-दे के दस-बारह घर की यजमानी थी जिनकी दक्षिणा और अंगउ से किसी तरह पेट भर जाता था, लेकिन इस सुखाड़ में जब लोग खुद का पेट नहीं भर पा रहे थे, तब पंडीजी को कौन पूछे!
फिर एक दिन जी कड़ा करके उन्होंने माई से कलकत्ता जाने के बारे में बताया, बिचारी कुहुक कर रह गयी। पहली संतान थे, अभी तो खेलने-खाने की उमर थी और इसी समय परदेस की ओर….!! बाबूजी की लाचार नजरें भला क्या कहतीं, घर की दुर्दशा छिपी तो नहीं थी, हां..उनकी मेहरारु सुरसती कसमसा कर रह गयी, अभी तो बिचारी जी भरके देख भी नहीं पायी थी उन्हें! इन सबसे अनजान छुटका अपनी दुनिया में मगन था।
फिर एक दिन जब आषाढ़ ने अपनी दस्तक दी ही थी, लालकेसर ने अपना झोला उठा लिया, गांव के कुछ लोग कलकत्ते में नौकरी करते थे, ये भी उनके साथ हो लिए। माई अपने बचवा के लिए चावल-दाल बांध रही थी और जार-जार रो रही थी, बाबूजी से बर्दाश्त नहीं हुआ तो दुआर पर जाकर गाय को सानी-पानी देने लगे!! इन सबमें अभागी सुरसती थी, न रो पा रही थी और न ही जज्ब कर पा रही थी, बस अंदर ही अंदर सुलग रही थी गीले गोंइठे की तरह!
कई बार बहुत सी चीजें जिन्हें हम दूर से देखते हैं, बड़ी प्यारी लगती हैं, लेकिन जब उन्हें अपने पास पाते हैं तो मन एक अजीब सी वितृष्णा से भर जाता है। लालकेसर के साथ भी ऐसा ही हुआ, जिस कलकत्ते के बारे में उन्होंने रंगीन सपने पाल रखे थे, पहुंचने पे चूर-चूर हो गये। एक छोटा सा कमरा और चार-चार लोग। बारी-बारी से ड्यूटी थी वरना जिस दिन एक साथ रहते सोने की जगह बमुश्किल मिलती।
गांव के लालमुनि चौबे की कुछ मारवाड़ियों से जान-पहचान थी, उन्होंने संपतजी के यहां किसी तरह कह-सुनके लालकेसर की नौकरी लगवा दी। वो एक बड़ी सी फर्म थी, चूंकि ये इंटर तक पढ़े थे सो लिखा-पढ़ी का काम मिल गया था। गांव से यहां आने के लगभग चार महीने के बाद इन्होंने घर पर पहली चिट्ठी लिखी अपने एकाउंटेंट बनने की खबर के साथ, साथ ही कुछ पैसे भी भेजे। अब मन कुछ निश्चिंत था, घर में कोई भूखे तो नहीं सोयेगा।
लगभग सालभर बाद लालकेसर ने गांव में कदम रखा, माई का तो गोड़ ही जमीन पर नहीं पड़ रहा था, बाबूजी खेत में चरी काट रहे थे, जैसे ही सुने बोझा खेत में ही पटककर घर दौड़े आये, छुटके के तो बैग टटोलने से ही फुर्सत नहीं थी। और इन सबके बीच थी गोद में नवजात बच्ची लिए सुरसती, उसके मन का हाल या तो वो खुद जानती थी या फिर विधाता, नजरें मिलीं तो उनमें शिकायत का समंदर लहरा था…’फगुआ में काहें ना आये निर्मोही!!’
दिन ढल रहा था और जिंदगी अपनी चाल चले जा रही थी।
बहुत परिवर्तन आ चुका था परिस्थितियों में, जहां पहले नाम मात्र का जमीन का टुकड़ा था वहीं अब खरीदने के लिए खेत देखे जा रहे थे, छुटका जवान हो गया था और एक अच्छे घर में उसकी शादी भी हो चुकी थी, खुद लालकेसर की चार-चार संताने थीं। माई-बाबू बुढ़ौती में जवान नजर आने लगे थे। ये सबकुछ इसलिए संभव हो सका था क्योंकि चार पैसे घर में आ रहे थे।
लेकिन इस उजियारे के पीछे का स्याह सच किसी को पता ना था! लालकेसर जांगर खटाकर नहीं बल्कि अपना खून जलाकर पैसे कमा रहे थे। जीभ पर तो जैसे उन्होंने जलता हुआ अंगारा रख लिया था, घर से भुने हुए चने और चावल का दाना लाते जिसे शाम को एक मुट्ठी फांककर उपर से लोटा भर पानी पी लेते। सुबह जब बाजार जलेबियों की महक से गुलजार होता, तिवारी ब्रदर्स के देसी घी में तले समोसे लेने के लिए लंबी लाइन लगती तब ये चुपचाप सर झुकाये फर्म पर जाने के लिए ऐसे निकलते मानों कुछ देख ही नहीं रहे हों!!
हाय!! अभागे ने कभी गलती से चाय भी तो ना पी दुकान पे, पेट काटकर पाई-पाई जोड़ते। प्राईवेट नौकरी में कोई पेंशन तो है नही, बुढ़ापे में यही पैसा तो काम आयेगा और उपर से बेटे-बेटियों की शादियां भी तो कृनी है, वैसे भी फर्म में दोपहर को एख चुक्कड़ चाय तो मिल ही जाती है। वहीं बड़ा बाजार थाने के पास पुराने कपड़े भी बिकते थे फुटपाथों पर। उन्हीं में से अपने लायक छांट लेते, अगर कभी शर्ट की कॉलर झर जाती तो दर्जी से उसे उल्टा करवाकर ठीक करा लेते!!
इतना कुछ स्वयं सहने के बावजूद भी क्या मजाल जो उन्होंने घरवालों यहां तक कि अपनी मेहरारु को भी भनक तक लगने दी हो। एक भ्रम की परत अपने और उनके बीच हमेशा बरकरार रखी, खुद तो दर्द सह ही रहे हैं फिर उनको क्यों बेवजह का साझीदार बनायें। भेद ना खुले इसलिए चेहरे पे छद्म गंभीरता का आवरण हमेशा ओढ़े रहते! मन के किसी कोने में आस का एक दीया टिमटिमा रहा था कि कल को भाई और बेटे काम-धाम करने लगेंगे तो इत्मीनान से वो अपना बुढ़ापा काटेंगे!
पर जा रे अभागे!!! विधि ने वो तो नहीं ही लिखा होगा जो तूने सोचा होगा, तभी तो छुटका जिसपर तुमने गरीबी की छाया तक ना पड़ने दी गाँव-जवार का नंबरी लंपट-आवारा निकल गया! पिछली गरमी में जब लालकेसर गाँव आये तो उनके खास मित्र रजेसर तिवारी ने छुटके के बारे में बहुत कुछ आपत्तिजनक बयान किया। पता चला कि उसकी संगत बदनाम लोगों से हो गयी है, इलाके की मशहूर तवायफ रीमाबाई से उसका जोरदार याराना चल रहा है, हालांकि उसकी मेहरारु लाखों में एक थी पर जिसे एक बार अधखिली कलियों भा जायें उसे गुलाब का फूल भी भला क्योंकर भाये! घर का धन यहां तक कि मेहरारु के गहने भी रीमा के शरीर पर जड़ने लगे।
लालकेसर को तो जैसे काठ मार गया, जिंदगी भर पाई-पाई के लिए तरसता, अपना खून जलाता कैसे बर्दाश्त कर पाता कि हजारों की संपत्ति बस मौज-मेले की भेंट चढ़ जाये! बड़े भारी मन से वो इस बार कलकत्ते गये जहां एक और विपत्ति अपने पलक-पांवड़े बिछाये उनका इंतजार कर रही थी। हालांकि अपनी वर्षों की नौकरी में उन्होंने पूरी कर्मठता और ईमानदारी का परिचय दिया था, संपतजी भी अपने बेटे जैसे मानते थे इनको पर बुढ़ापे की वजह से धीरे-धीरे फर्म का काम बेटे को सौंप दिया था। और वो बेटा जिसे लालकेसर ने अपनी गोंद में खिलाया था, एक दिन एकदम निठुराहे कह दिया…’बाबा, अब आप घर पर आराम करो, बहुत दिन सेवा कर चुके, उमर भी तो हो ही गयी है!!’
बस्स!! उसी दिन वज्रपात हो गया था उनपर, एकाएक अपनी उम्र से बीस साल ज्यादे का महसूस करने लगे थे खुद को!!
‘तो क्या ये कलकत्ते का आखिरी फेरा है उनका!!’
ये एक वाक्य उनके करेजे पे हथौड़े की तरह बज रहा था! उस दिन रातभर नींद नहीं आयी उनको। अभी तो बहुत कुछ करना रह गया है उनको, बच्चे भी अभी काम लायक नहीं हुए है। ये तो पक्का था कि अबकी दीवाली में उनका हिसाब-किताब हो जायेगा। इस ख्याल ने कई दिनों तक उन्हें चैन से सोने नहीं दिया! हालांकि उन्होंने कई बार संपतजी से भी मनुहार की पर कोई फायदा नहीं हुआ सिवाय इसके कि रिटायरमेंट दीवाली के बजाय गरमी तक टल गया।
अबकी दीवाली में जब लालकेसर घर आये तो अंदर से काफी बुझे-बुझे से थे लेकिन चूंकि अक्सर गंभीर ही रहते थे सो लोग समझ नहीं पायें यहां तक कि उनकी मेहरारु भी नहीं, उल्टे पगली अपनी पुरानी फरमाईश ले बैठी…’ए जी। आप हर बार टाल जाते हैं…कब ले चलेंगे हमें कलकत्ता? सब औरते बाहर-भीतर जाती है अउर एक हम हैं जो इहां अकेले गाऋव में पूरी जिनगी चुपचाप गुजार दी!!’
आह्ह!! करेजा छलनी हो गया लालकेसर का…’इस बिचारी की एक छोटी सी साध भी तो पूरी ना कर पाया!!’ और फिर अगले ही दिन छुटके की एक नयी करतूत सामने थी। खेत रेहन रखा जा चुका था। उस वेश्या रीमा के चलते सर पर इतना कर्जा लद चुका था कि सारी प्रॉपर्टी बिक जाती तब भी ना चुकता!!
विधाता!! क्या होगा परिवार का!! कहां जायेंगे उनके बच्चे!! और फिर ये झटका अंतिम साबित हुआ उनके लिए। एक शाम जब वे शौच के लिए खेतों की ओर गये तो देर तक नहीं लौटे, लोग ढूंढ़ते हुए उधर गये तो जमीन पर औंधे मुंह पड़े हुए थे!! भौंरा अपनी अंतिम यात्रा पर निकल चुका था…..
जाने कितने सपने और किस्से अधूरे छूट गये थे….
सुख की चाह मन में लिए जिंदगी भर लोगों की दुर-दुर सहते बिचारे को अब जाकर विश्राम मिला था…
और पीछे रह गया दुनिया का मेला, तो वो भला कब किसके लिए रुका है, वो उसी तरह फिर से चलने लगा…नियमित और निर्बाध!!!
जब तक ये धरती रहेगी…ये अधूरी कहानी यूं ही चलती रहेगी…
हमेशा…..बस किरदार बदलते रहेंगे….!!**
कथाकार – कृपा शंकर मिश्र ‘खलनायक’
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