#पतिता
रात घिरने लगी थी…..उपर आसमान में अर्द्धचंद्र तेजी से भागा जा रहा है पश्चिम की ओर…सारा इलाका नींद के आगोश में डूबा है सिवाय भांय-भांय करते सन्नाटे के…लेकिन ये शोर भी तो उसे ही सुनायी देता है ना जिसके मन में असंख्य छेद हो।
इसी इलाके में तथाकथित सभ्यों की बस्ती से कुछ अलग हटकर बसा है #रंडियों का डेरा…बमुश्किल चालीस-पचास की आबादी वाला। आमतौर पर बोलचाल की भाषा में हम इसे #कोठे की संज्ञा से नवाजते हैं और परिचित भी उतने ही होते हैं जितना किसी घनघोर लंपट नारीवादी की अमूल्य कृति सिनेमा या साहित्य के झरोखे से दिखा होता है….कोठा चलाने वाली थुलथुल बदन की…आंखों में काजल..मुंह में पान..खुर्राट चेहरे और नजरों में जमाने भर का #छिनरपना समेटे मालकिन….तिरछी नजर और टेढ़ी मुस्कान फेंककर ग्राहक फांसते दलालों की फौज….फूल…गाव तकिये और मसनद से सजे कमरे…धीमा-धीमा गूंजता कोई पुराना फिल्मी मुजरा और इन सबसे बढ़कर इसकी जीवन रेखा जवान रंडियां….पर नहीं-नहीं। ये नाम कुछ भद्दा सा लगता है…कितनी नजाकत भरी है इनमें…कहीं से भी खेली-खाई नजर तो नहीं आतीं ये…ऐसा लगता है जैसे आज ही #नथउतराई की रस्म पूरी होने वाली हो…जमाने भर का गम सीने में समेटे..बिस्तर के नीचे दबी-सिसकती। हो सकता है कि जल्दी ही कोई खुदाई खिदमतगार आये और सारे जमाने से लड़ते हुए इनको अपने मन-मंदिर में सदा के लिये बसा ले!!!!
हुंह….पूर्वानुमान तो राजनीति और मौसम के होते हैं बाबू जी …कोठे के मामले में नहीं…क्ययोंकि यहां पैरों से चलकर नहीं..अरमानों पे सवार होकर पहुंचा जाता है।
जैसे ही पहली बार पांव पड़े मेरे…सारा अर्जित ज्ञान ‘छन्न’ से टूटकर बिखर गया….’नागिन है बाबू नागिन..एक बार कसकर लिपटेगी तो जनम-जनम डंसे जाने का लोभ ना छोड़ पाओगे..!!!!’ दलाल के शब्द मेरे कानों के पर्दे फाड़ने पर आमादा थे…सहसा उसकी कुछ बेशर्मी की चासनी में डूबी आवाज ने मुझे झकझोरा…’कहां खो गये बाबू!!! पहली बार आये हो या इससे पहले कोई लड़की ना देखी…इतने ध्यान से तो कोई विधायक भी नहीं निहारता…यहां.मजा मारने आये हो या सरकार चलाने…खैर ….बात तो एक ही है!!!’
….आं..आं..कुछ नहीं..बस वैसे ही…!!!’
फिर से एक बार खनकती हंसी…पिछली बार से कुछ ज्यादा ही..पान से कुछ काले हो चुके दांत चमक पड़े..जर्दे का भभका मेरे नथुनों से टकराया…कुछ भी तो वैसा ना दिखा जो देखा-पढ़ा था…पुराने मोटे से गद्दे पे बिछी नयी चद्दर…धीमें-धीमें चलता खड़खड़ाता पुराना सा पोलर कंपनी का पंखा…हवा कम शोर ज्यादा करता…लो कट ब्लाउज से सरकी हुई साड़ी..खुले बाल..कुछ पसीने के मारे गालों पे चिपके हुए..होठों पे गाढ़ी लिपिस्टिक…गले में झूलता काले धागे में ताबीज…’अच्छा!!!! तो अब रंडियों को भी नजर लगने लगी!!!!!’
छी: एकाएक घिन उठी मन में…’क्या पता नहाई भी है कि नहीं…दिन में सत्संग में तो गयी ना होगी…ऐसे में कैसे…..!!!!!’
….’तुम्हारे लच्छन ठीक ना लग रहे बाबू!!!! क्या इरादा है? किसपे नजर गड़ी है…
….’ना…ना…ना…मैं तो बस कहानी के फेर में आया हूंं…लेखक हूं…यहां की जिंदगी की वास्तविकता जानना चाहता हूं बस!!!!’
जोरों का ठहाका फूट पड़ा….’अरी ओ मम्मी!!! देख तो कौन नमूना आया है! यहां तो जिसके भी सिर पर समाजसेवा का भूत चढ़ता है..कोठे पे भागा चला आता है!!! वैसे क्या करोगे जानकर ये सब? अरे अगर देखना ही है तो जाकर देखो दुनिया का #रंडीपना। लेकिन नहीं…वहां तो कलम की स्याही सूख जायेगी तुम्हारी। सब सेफ गेम खेलने के जो आदी हैं यहां। खैर पूछो..क्या पूछना है?’
सबकुछ भूल चुका था मैं…..’तुम्हें पछतावा नहीं होता इस जिंदगी पर?’
…’जब माल और मजा दोनों मिले तो कैसा अपराधबोध!!!! जानते हो ना…यहां से दो मील दूर पुलिस थाना है…जिले का सबसे कमाऊ थाना…बाकायदे बोली लगती है उसकी…इसलिये नहीं कि यहां आकर समाज का कोढ़ मिटायेगा बल्कि इसलिये कि इसे चंदन समझकर माथे पे लगायेगा..लोक-परलोक बनायेगा। अभी जो नवका थानेदार आया है ना…पूरे चार लाख पुलिस कप्तान के मुंह में ठूंस के आया है..अपराधियों का कम पर ग्राहकों का पूरा लेखा-जोखा रखता है..मजाल है कि एक की भी हेराफेरी हो जाये…अगले ही दिन कानून की सारी धारायें बांच जायेगा….और उपर से देह की दुर्गति सो अलग। और एक वो अपने नेताजी…हुंह..मंच पर परबचन तो ऐसे देंगे की पूछो मत..बीवी-बच्चे राजधानी पठाकर यहां गोता मारने चले आते हैं…भले ही होता-सोता कुछ ना हो साले से। और ये ….ये देख रहे हो टीवी पर..कितनी जोरदार बहस चल रही है!!!!! जरा पूछो इनसे…रोज-रोज की टांय-टांय से क्या कुछ बदल गया।।!!! हमें किसी दिन ग्राहक मिले ना मिले पर इन्हें चिल्लाने को मुद्दे रोज मिल जाते हैं!!!हम कभी बाजार चली जायें तो सैकड़ों नजरें हिकारत से घूरने लगती हैं…काश कि यही अदा हम भी सिल्वर स्क्रीन पर दिखलातीं तो स्टार कहलातीं!!
हमारे पास तो एक ही चेहरा है बाबू…मन करे चूमो या थूको!!! हजार मुखौटे होते तो इतिहास हमें भी पूजता!!! बड़ा मुश्किल है बाबू इस जहां में एक चेहरे के साथ जीना!!! तुम्हारे पास भी होंंगे कई चेहरे…इसीलिये फिर पूछती हूं…कपड़े उतारुं?????’
मेरे कंठ में कुछ अजीब सा फंस रहा था…पहला प्रश्न ही अंतिम बन चुका था…’नहीं रहने दो….चलता हूं।’
….’ठीक है…जैसी तुम्हारी मर्जी…जाओ….पर बाहर मम्मी को पेमेंट करते जाना…हिसाब रखना पड़ता है…और हां…जाते-जाते अंतिम बात सुनते जाओ….एक रंडी के लिये बड़ा मुश्किल है इस #सिस्टम के खांचे में खुद को स्थापित करना….बाकी उनके लिये बड़ा सहज है #रंडीपने को जीना…क्योंकि उनके पास चेहरे खरीदने को ढेरों संसाधन जो है!!!! हालांकि बुराई की पक्षधर तो मैं भी नहीं…विपक्ष नहीं हूं जो आंख पे पट्टी बांधे हर जगह थूकती चलूं ताकि समाज को बरगला कर खुद की राजसत्ता कायम कर सकूं!!!!! अच्छा या बुरा…खुद का मुजरा करती हूं…पैसे के बल पर खरीदे हुए बौद्धिकों का झुंड नहीं है अपने पास!!!!
ये कोठा है बाबू!!! कायदे-कानून यहां भी हैंं…अगर कभी बदलते भी हैं तो तुमलोगों की सुख-सुविधा के हिसाब से ना कि गिद्धों के झुंड की खोपड़ियां गिनने से!!!!!
पतिव्रता होने का ढोंग करने से तो हजार गुना अच्छा है पतिता बनकर जीना…….. इसीलिये बाबू….गर्व है खुद पर कि देह की खाती हूं……देश को बेचकर नहीं!!!!!!**
कृपा शंकर मिश्र #खलनायक**
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